आख़िर ये धर्मान्धता क्यों? धर्म के नाम पर बेवजह ख़ून-ख़राबा ये क़त्लेआम क्यों?

 




विश्व के कुल १९५ देशों की कुल आबादी ८ अरब है और विश्व में लगभग ३०० से ज़्यादा धर्म हैं. वैश्विक स्तर पर मान्य और स्वीकार्य धर्म मात्र १२ हैं. इन १२ प्रमुख धर्मों की जनसँख्या के आँकड़ें इस प्रकार हैं:

सनातन/हिन्दू धर्म:            १६% = १२८००००००० 
मुस्लिम धर्म:                  २३% = १८४००००००० 
ईसाई धर्म:                    ३०% = २४००००००००
सिख्ख धर्म:                    ०.३% = २४००००००
जैन धर्म:                       ०.२०% = १६००००००
पारसी धर्म:                    ०.१२५% = १००००००० 
बौद्ध धर्म:                     २९.% = २३२००००००० 
बहाई धर्म:                     ०.०००२५%  = २००००००
यहूदी धर्म:                     ०.२० = १६००००००
पैगन धर्म:                      ०.०००७५ = ६००००
वुडू धर्म:                       ०.०००२ = १६०००००
शिन्तो धर्म:                    ०.०५% = ४००००००

ये आँकड़े चीख़-चीख़ कर कह रहे हैं कि विश्व में लगभग:

८४% लोग सनातन/हिन्दू धर्म को नहीं मानते.
७७% लोग इस्लाम धर्म को नहीं मानते.
७०% लोग ईसाई धर्म को नहीं मानते.
७१% लोग बौद्ध धर्म को नहीं मानते.
९९.७०% लोग सिख्ख धर्म को नहीं मानते.
९९.८०% लोग जैन धर्म को नहीं मानते.  
९९.८७% लोग पारसी धर्म को नहीं मानते.
९९.८० % लोग यहूदी धर्म को नहीं मानते.

तो फिर प्रत्येक धर्म के धर्मावलम्बी आख़िर ये दावा कैसे कर सकते हैं कि:

ये दुनियाँ "उनके धर्म के आराध्य या सर्वेसर्वा" ने बनाई है?
इस दुनियाँ में एकमेव मान्यता उन्हीं के धर्म की है?
इस दुनियाँ पर उनके धर्म के बनाए उसूल-नियम-क़ायदे-क़ानून लागू होंगे?
इस दुनियाँ में उनका धर्म ही सर्वेसर्वा या सर्वश्रेष्ठ है?
इस दुनियाँ में उनके धर्म का ही आधिपत्य या हुक़्म चलेगा?
इस दुनियाँ पर राज करने का एकमेव अधिकार केवल उन्हीं के धर्म को है?

फिर आख़िरकार धर्म के नाम पर:

दंगे-फ़साद क्यों?
ख़ून-ख़राबा क्यों?
हिंसा-मारकाट क्यों?
इन्सान को इन्सान से नफ़रत क्यों?
इन्सान ही इन्सान के ख़ून का प्यासा क्यों?
 
एक और सबसे महत्वपूर्ण एवं ज्वलन्त प्रश्न ये है कि आख़िर धर्मान्धता की ओर हम अपनी मर्ज़ी से बढ़ रहे हैं? ये हिंसा-मारकाट-क़त्लेआम-दंगे-फ़साद हम अपनी मर्ज़ी से कर रहे हैं या कोई और हमसे जानबूझकर ये सब करवा रहा है, सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने स्वार्थ या राजनैतक मक़सद के लिये? यदि वाकई में ऐसा है तो फिर इसका मतलब ये हुआ कि हम तो नरपिशाचों-हैवानों  हाथों की कठपुतलियाँ बने हुए हैं. इतिहास उठाकर देख लीजिये:

उकसाने,
भड़काने,
आग़ लगाने वाला कोई भी आजतक किसी दंगे-फ़साद-क़त्लेआम का शिकार नहीं हुआ है. शिकार हुए हैं तो हम जैसे सामान्य लोग. सोचियेगा ज़रुर.
 
भला दुनियाँ का कौन सा धर्म अपनी रक्षा की आड़ लेकर, किसी इन्सान का ख़ून बहाने की शिक्षा देता है या वक़ालत करता है?

आख़िरकार इन्सान ये बहुत ही साधारण या मामूली सी बात क्यों नहीं समझ पा रहा कि दुनियाँ में सबसे बड़ा, सबसे ऊपर एक ही  धर्म है, और वो है, "मानवता या इन्सानियत का धर्म", जो:

दंगे-फ़साद,
ख़ून-ख़राबे,
हिंसा-मारकाट,
ईर्ष्या-द्वेष-नफ़रत नहीं बल्कि:

भाईचारे,
प्रेम-सौहार्द्र,
परोपकार-मानवता सन्देश देता है.

अरे ज़रा ये तो सोचिये, धर्म की रक्षा की आड़ में किसी का ख़ून बहाने से, किसी भी धर्म का भगवान्-ख़ुदा-God-प्रभु-ईश्वर प्रसन्न या ख़ुश हो सकता है भला? हरगिज़ नहीं. बल्कि उस ऊपरवाले का भी कलेजा फट जाता होगा ये सब देखकर. ऊपरवाला भी ये सोचकर बेहद दुःखी मन से पश्चाताप करता होगा कि मैनें तो ये ख़ूबसूरत दुनियाँ प्यार और परोपकार बाँटने के लिये बनाई थी, एक ही धर्म "मानवता/इन्सानियत" का बनाया था, एक ही जाति "मानवजाति" बनाई थी, एक ही भाषा "प्यार की भाषा" बनाई थी, रहने के लिये एक ही स्थान "दिल" बनाया था, लेकिन इन्सान ने अलग-अलग:

जाति-धर्म-भाषा-प्रान्त बना डाले.

अपनी ही बनाई हुई ख़ूबसूरत दुनियाँ की ये हालत देखकर तो आज ऊपरवाला भी रो रहा होगा. वो ऊपरवाला, जो दुःख की घडी में हमें ढाँढस बँधाता है, हमें धैर्य-शक्ति-आत्मबल एवं आत्मविश्वास प्रदान करता है. 

याद रखिये, यदि ऊपरवाले ने आपको इन्सान बनाया है तो ज़रुर किसी ख़ास मक़सद से ही बनाया होगा. और ये भी एक कड़वी सच्चाई है कि एक न एक दिन इस जीवन का अन्त भी सुनिश्चित है. तो फिर इस जीवन में धर्म की आड़ में एक-दूसरे से नफ़रत और ख़ून-ख़राबे क्या काम? क्यों न इस जीवन को:

प्रेम
सौहार्द्र
भाईचारे
परोपकार के साथ जीएँ? यक़ीन मानिये, ऐसा करने से आपके मन को जो सुख-शान्ति-सुकून मिलेगा, वो दुनियाँ की हर दौलत से परे, अनमोल और बेशक़ीमती होगा. ऊपरवाला भी न केवल बेहद ख़ुश होगा, बल्कि आप पर भी ख़ुशियों की बरसात करेगा.
 
तो साथियों:

अब भी वक़्त है सम्हल जाओ!
गिले-शिक़वे सब भूल जाओ!! 
मिल करें पुरज़ोर कोशिश,
एक हाथ वो बढ़ाएँ, एक तुम बढ़ाओ!!

शिशिर भालचन्द्र घाटपाण्डे
०९९२०४ ००११४/०९९८७७ ७००८०
ghatpandeshishir@gmail.com

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