"कर्मयोगी बनिये, धर्मान्ध या भाग्य भोगी नहीं"
कहाँ है ऊपरवाला?
जी हाँ, मन-मस्तिष्क में ये ज्वलन्त-तीख़ा सवाल हज़ारों-लाखों बार, बारम्बार तब उठता है जब मैं:
मासूम,
अबोध,
अबोले,
नौनिहालों को:
भूख़-प्यास से रोते-बिलखते-तड़पते देखता हूँ,
पानी की तेज़ बौछारों और कँपकँपाती हड्डी तोड़ ठण्ड में भी, चीथड़ों में लिपटे देखता हूँ,
छोटी-छोटी बातों-चीज़ों-वस्तुओं के लिये भी तरसते-ललचाते-बिलबिलाते-मन मारते देखता हूँ,
और जब उन तमाम:
बेबस,
लाचार,
मजबूर,
असहाय इन्सानों को देखता हूँ, जो अपने मासूम बच्चों और मन ही मन मौत की भीख़ माँगते वृद्ध परिजनों के लिये चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते बस मन मसोस कर और अपने आप को कोस कर रह जाते हैं, दुःख के अथाह सागर में डूबे उनके आँसू उनकी पीड़ा-व्यथा बिल्कुल साफ़ बयाँ कर जाते हैं.
कोई दौलत के सागर में डूबा है तो कोई उसकी एक-एक बूँद को तरस रहा है.
कोई आलीशान कोठियों या आधुनिक महलनुमा घरों में सम्पूर्ण भोग-विलासिता-ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत कर रहा है तो कोई अपने नन्हें बच्चों, वृद्ध-असहाय परिजनों के साथ पाईपों-सड़कों-फुटपाथों पर किसी तरह बस दिन निकाल रहा है.
किसी के यहाँ रोज़ खाना फिंक रहा है तो कोई अन्न के एक-एक दाने के लिये तरस रहा है.
किसी के वॉर्डरोब शानदार कपड़ों से भरे पड़े हैं तो कोई किसी तरह चीथड़ों से तन ढँकने की नाकाम कोशिश कर रहा है.
किसी के शू रैक चमचमाते जूते-चप्पल-सैंडल्स से भरे पड़े हैं तो कोई पथरीले या काँटेदार रास्तों पर कटे-फटे-छालेदार-लहूलुहान पैरों से अनजानी मज़िल की ओर बढ़ा चला जा रहा है.
कोई चमचमाती-आलीशान गाड़ियों में जानवरों को भी दुलार-पुचकारकर दूध-बिस्कुट खिला रहा है तो कहीं नौनिहाल-मासूम दूध की एक बूँद के लिये भी बुरी तरह बिलख रहा है.
बेहद अफ़सोस होता है ये देखकर कि दौलत के अथाह सागर में आकण्ठ डूबे लोग इसकी चन्द बूँदें भी:
रोते,
बिलखते,
छटपटाते,
गिड़गिड़ाते,
या
बेबस,
लाचार,
असहाय लोगों पर गिराकर, उनके जीवन की तपिश को तनिक शीतलता प्रदान करने की कोशिश मात्र भी नहीं करते.
चन्द लम्हों के लिये ज़रा आँखें मूँदकर, मन-मस्तिष्क में विचार करके ही देख लीजिये, जहाँ एक ओर:
धूर्त,
झूठे,
स्वार्थी,
कपटी,
लालची,
मक्कार,
बेईमान,
धोख़ेबाज़ों की समूची दुनियाँ ही नज़र आ जाएगी जो:
फल-फूल रहे हैं,
ऐशो-आराम-अय्याशी-भोग-विलासिता जीवन जी रहे हैं,
ग़रीबों-असहायों-मज़लूमों का हक़ छीनकर-मारकर खा रहे हैं,
तो दूसरी ओर:
नेक,
भले,
सच्चे,
परिश्रमी,
ईमानदार लोग घोर:
कष्ट,
दुःख,
पीड़ा,
बेबसी,
ग़रीबी,
लाचारी,
मजबूरी में, अपने परिवार के साथ, किसी तरह तिल-तिल कर, मौत से भी बदतर ज़िन्दगी जी रहे हैं.
आख़िर ये दुनियाँ इतनी बेमेल क्यों? आख़िर ये घोर अन्याय, इतनी नाइन्साफ़ी क्यों?
चन्द स्वयम्भू महाज्ञानी, तथाकथित समझदार कहते हैं, "ये तो पिछले जन्म कर्मों के फल हैं"..... अरे कैसे भाई? तुम्हें कैसे पता? और पता है तो साबित कर सकोगे?
इतिहास उठाकर देख लीजिये:
नेक,
भले,
सच्चे,
परिश्रमी,
ईमानदार लोगों को ही भारी कष्ट या घोर यातनाएँ-पीड़ाएँ झेलनी पड़ी हैं. अरे इतना ही नहीं, जिन्हें लोगों ने साक्षात अवतार माना उन्हें भी. फिर चाहे वो किसी भी धर्म के आराध्य हों, लेकिन मैं यहाँ किसी भी अवतार-व्यक्ति या धर्म का नाम नहीं लूँगा, क्योंकि मेरा उद्देश्य:
उकसाना,
भड़काना,
लड़ाना नहीं बल्कि, अपनी बातों की सच्चाई को साबित करना है.
दुःख होता है, किसी के कर्मों या कठोर-अथक परिश्रम का फल भी सीधे ऊपरवाले को दे दिया जाता है. और यदि फल आशा-इच्छानुसार ना हो या विपरीत हो तो दोष सीधे भाग्य पर मढ़ दिया जाता है, जिसका सीधा और भरपूर अनुचित लाभ उठाते हैं, सभी धर्मों में धर्मगुरुओं का चोला ओढ़े चन्द:
धूर्त,
स्वार्थी,
मक्कार,
पाखण्डी.
जब तक:
सड़कों,
स्टेशनों,
सिग्नलों,
होटल-रेस्टाॅरेंटों के सामने:
मासूम बच्चे,
असहाय वृद्ध:
गिड़गड़ाते,
रोते-बिलखते हुए भीख़ मांगते दिखाई दे रहे हैं
और:
तन पर चीथड़े लपेटे,
खुले आसमान के नीचे,
तो दूसरी तरफ़ कुछ लोग:
मौज-मस्ती,
ऐशो-आराम,
भोग-विलासिता,
रंगीनियों-अय्याशी में गुजर-बसर कर रहे हैं, तो ये सवाल भी मन में कौंध उठता है कि इस घोर सामाजिक असमानता का ज़िम्मेदार आख़िर है कौन:
कर्म,
भाग्य
या
विधाता?
तय हमें ही करना है, "कर्मयोगी बनना है या धर्मान्ध-भाग्य भोगी".....
शिशिर भालचन्द्र घाटपाण्डे,
ghatpandeshishir@gmail.com
०९९२०४ ००११४/९९८७७ ७००८०
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