ऐसी भी क्या जल्दी थी हरि भाई?
ऐसी भी क्या जल्दी थी हरि भाई? ६ नवम्बर १९८५ का वो दिन, Radio पर जैसे ही ये समाचार सुना कि कला जगत के चमचमाते सितारे संजीव कुमार साहब यानी कि सबके चहेते हरि भाई नहीं रहे, यक़ीनन मेरे साथ साथ समूचा देश शोकाकुल हो उठा था. मात्र ४७ वर्ष की आयु में दुनियाँ को अलविदा कहने की, ऐसी भी क्या जल्दी थी हरि भाई? संजीव कुमार न केवल बेहतरीन कलाकार बल्कि बेहतरीन, ज़िन्दादिल, हंसमुख इंसान थे. उनके चेहरे पर हमेशा खिलखिलाते फूल की तरह, मोहक मुस्कान होती थी. १९६० में *हम हिन्दुस्तानी* की छोटी सी भूमिका से अपना फ़िल्मी सफ़र शुरु करने वाले संजीव कुमार ने अपनी ज़बरदस्त अदाकारी से अपना एक अलग ही मुक़ाम हासिल कर लिया, एक अलग ही पहचान स्थापित कर ली. शोले का रौबदार ठाकुर हो या त्रिशूल का रौबदार Businessman, फ़रार का कर्तव्यनिष्ठ पुलिस ऑफ़िसर हो या ख़ुद्दार का Judge-वकील, उनका हर अंदाज़ एक-दूसरे से बिल्कुल जुदा-अजूबा था. सत्यकाम, अनोखी रात, ईमान धरम, अनामिका, उलझन, सीता और गीता, आपकी क़सम, सिलसिला के संजीदा क़िरदार हों या अंगूर, शतरंज के खिलाड़ी, नौकर, स्वर्ग नर्क, श्रीमान श्रीमती, स्वयंवर,...
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