ये करारी-प्रचण्ड हार किसकी?
ये करारी-प्रचण्ड हार किसकी?
हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनावों में कॉंग्रेस Party की न केवल करारी-प्रचण्ड हार हुई है बल्कि दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अशोक गहलोत, सुरेश पचौरी जैसे दिग्गज कॉंग्रेसी नेताओं के राजनैतिक Career का भी अन्त हो गया है, और ये अन्त इस प्रकार हुआ है, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं होगी.
लेकिन आख़िरकार बड़ा सवाल तो ये उठता है कि दर असल ये हार कॉंग्रेस की है या घेंडी-वाड्रा 'ख़ान'दान की? लेकिन प्रथम दृष्टया आँकलन ही कर लिया जाए तो इस सवाल का जवाब बेहद आसान है, ये हार कॉंग्रेस से ज़्यादा घेंडी-वाड्रा 'ख़ान'दान की है और संकेत बिल्कुल साफ़ हैं कि देश की जनता अब भारतीय राजनीति में घेंडी-वाड्रा 'ख़ान'दान को देखना नहीं चाहती. शायद ये बात कॉंग्रेसी भी अच्छी तरह जानते और मानते हैं लेकिन लाचारीवश बोल नहीं पा रहे क्योंकि 'रजवाड़े' के ख़िलाफ़ बोलने का नतीजा अनेक लोगों ने देखा और भुगता है.
लेकिन आख़िरकार ये कब तक चलेगा? क्या कॉंग्रेस के नेता-कार्यकर्ताओं, ख़ासतौर पर युवाओं का राजनैतिक Career और भविष्य यूँ ही न केवल दाँव पर लगा रहेगा बल्कि समाप्त ही हो जाएगा?
तो अब कॉंग्रेस के युवा नेता-कार्यकर्ताओं को ही भली-भाँति ये समझना होगा कि अब उनके पास मात्र दो ही विकल्प या रास्ते हैं,
एक: घेंडी-वाड्रा 'ख़ान'दान का खुलकर विरोध एवं भारत की राजनीति से उनकी विदाई.
दो: उन्हें ये स्वीकार करना ही होगा कि अब:
आतंकियों का समर्थन नहीं चलेगा.
पत्थरबाजों का समर्थन नहीं चलेगा.
टुकड़े Gang का समर्थन नहीं चलेगा.
अलगाववादियों का समर्थन नहीं चलेगा.
धारा ३७० हटाने का विरोध नहीं चलेगा.
प्रभु श्रीराम मन्दिर का विरोध नहीं चलेगा.
हिन्दुत्व और सनातन का विरोध नहीं चलेगा.
मुस्लिम Vote Bank की राजनीति नहीं चलेगी.
जनसँख्या नियन्त्रण क़ानून लाने का विरोध नहीं चलेगा.
समान नागरिक संहिता क़ानून लाने का विरोध नहीं चलेगा.
देशद्रोह क़ानून में संशोधन लाए/किये जाने का विरोध नहीं चलेगा.
जातियों के नाम पर हिन्दू-सनातनियों को तोड़ने-फोड़ने-बांटने और उनमें फूट डालने की राजनीति नहीं चलेगी.
और सबसे बड़ी बात म
मोदी-शाह-भाजपा विरोध के नाम पर या विरोध की आड़ में देशविरोध और देशद्रोह नहीं चलेगा.
शिशिर भालचन्द्र घाटपाण्
डे०९९२०४ ००११४/०९९८७७ ७००८०
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