हाहाकार

आधा देश जलमग्न हो चुका है. भयावह बाढ़ से त्रस्त आम जनता त्राहिमाम् कर रही है. चारों ओर प्रकृति ने हाहाकर मचा रखा है और हर साल मचाती है. समय-समय पर इन्सान को चेतावनी भी देती है , लेकिन प्रकृति से खिलवाड़ करने वाले हैं कि समझने को तैयार ही नहीं. पेड़ों-जंगलों को काटना , पहाड़ों को काटना-तोड़ना , सीमेंट-गारे के जंगल बनाना जारी है. हर साल आधा देश भयावह बाढ़ की त्रासदी झेलता है तो आधा भीषण सूखे की मार. उस पर तूफ़ान , आँधी , ओलावृष्टि , बे-मौसम बरसात , टिड्डी-कीट-पतंगे-इल्ली के प्रकोप ने देश के अन्नदाता को बर्बाद करने के साथ ही आम जनता को भी बुरी तरह त्रस्त कर रखा है. कभी सूख़े , कभी बे-मौसम बरसात , कभी बाढ़ या अतिवृष्टि तो कभी ओलावृष्टि क्या "देश के अन्नदाता" और आम जनता की क़िस्मत में हर परिस्थिति में केवल रोना , बिलखना , तड़पना , त्रस्त होना ही लिखा है ? i आख़िरकार मानसून के आगमन के पूर्व ही नदियों , तालाबों , जलाशयों , कुओं , बावड़ियों का सफ़ाई एवं गहरीकरण अभियान युद्धस्तर पर क्यों नहीं चलाया जाता ? ii हर वर्ष भीषण बाढ़ से कोहराम मचाने वाली नदियों और उनकी चपेट में आने वा...