"कर्मयोगी बनिये, धर्मान्ध या भाग्य भोगी नहीं"

"कर्मयोगी बनिये, धर्मान्ध या भाग्य भोगी नहीं" कहाँ है ऊपरवाला? जी हाँ, मन-मस्तिष्क में ये ज्वलन्त-तीख़ा सवाल हज़ारों-लाखों बार, बारम्बार तब उठता है जब मैं: मासूम, अबोध, अबोले, नौनिहालों को: भूख़-प्यास से रोते-बिलखते-तड़पते देखता हूँ, पानी की तेज़ बौछारों और कँपकँपाती हड्डी तोड़ ठण्ड में भी, चीथड़ों में लिपटे देखता हूँ, छोटी-छोटी बातों-चीज़ों-वस्तुओं के लिये भी तरसते-ललचाते-बिलबिलाते-मन मारते देखता हूँ, और जब उन तमाम: बेबस, लाचार, मजबूर, असहाय इन्सानों को देखता हूँ, जो अपने मासूम बच्चों और मन ही मन मौत की भीख़ माँगते वृद्ध परिजनों के लिये चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते बस मन मसोस कर और अपने आप को कोस कर रह जाते हैं, दुःख के अथाह सागर में डूबे उनके आँसू उनकी पीड़ा-व्यथा बिल्कुल साफ़ बयाँ कर जाते हैं. कोई दौलत के सागर में डूबा है तो कोई उसकी एक-एक बूँद को तरस रहा है. कोई आलीशान कोठियों या आधुनिक महलनुमा घरों में सम्पूर्ण भोग-विलास...